रचनाकार प्रकाशन
Friday, 2 May 2025
Tuesday, 25 February 2025
कूड़ी के गुलाब (काव्य संग्रह) : कवि डॉ. अमित धर्मसिंह लोकार्पण : 29 दिसंबर, 2024
टिप्पणियां
1."खूबसूरत आवरण ,शीर्षक से सजी अमित धर्मसिंह की ' कूड़ी के गुलाब पुस्तक' मिली। आरंभ में 19पृष्ठ का पारिवारिक- व्यक्तिगत, आर्थिक- साहित्यिक संघर्ष और सफर का संस्मरणातक आत्मकथन है । उसमें लेखक ने स्वयं को ही कूड़ी के गुलाब की तरह अभिव्यक्त किया है। 212पृष्ठ की अतुकान्त रचनाओं में पिता, मां ,ताऊ ,के संघर्ष की अभिव्यक्ति है।पत्नी के समर्पण के प्रति कृतज्ञता है । जमीन के व्यक्ति की संघर्ष गाथा है।आज के अंबेडकर की उपेक्षा है। भीतर का खालीपन है। बंटवारे के बाद का बंटवारा है । छद्म सफलता की होड़ का परिदृश्य है। चिड़िया का गीत है। शब्द का जीवन चक्र है। कूपमण्डूक कवि है। इंसानी भेड़ें और गडरिया है। धुन का पक्का व्यक्ति है । नींव की ईंट है। मंदिर बनाम उद्योग है। भोंकम भोंक है। बात का बतंगड़ है। भगवान और इंसान और ग्लोबल दुनिया का पूरा खुला चिट्ठा सरल साधारण शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है । गुलाब तो गुलाब है चाहे बगिया में खिले या कूड़ी में मगर दोनों का संघर्ष तो सामान्य और सामान नहीं होता । जीवन संघर्ष एक धनाढ्य परिवार और निर्धन परिवार के बच्चे का जीवन संघर्ष जिस तरह भिन्न होता है । उसी प्रकार उच्च वर्ग और निम्न कहे जाने वाले वर्ग की पीड़ाएं संघर्ष अलग होता है। विचारधाराओं का टकराव भी व्यक्ति को अलग- थलग करता है, घुलने मिलने से रोकता है। इंसान को जीने के लिए कितनी बैसाखियां चाहिए होती हैं यही भाव बैसाखियां शीर्षक से अभिव्यक्त हुआ है। इंसान रिश्तों की परिधि के बाहर होते ही असमय मरने लगता है । धीरे - धीरे मर जाता है । बेमौत मरना शीर्षक से अभिव्यक्त हुआ है। ऐसा लगता है लेखक डायरी साथ लेकर चला है जो भी भाव उमड़े उन्हें डायरी में अंकित करता गया है । फिर पुस्तक के रूप में संजो लिया है।एक विद्वान् कवि का विचार भी रचना के रूप में ही अभिव्यक्त होता है। ऐसा ही हुआ है। जीवन के हर पहलू का ही नहीं हर वर्ग, वर्ण ,रंग ,स्तर सोच का खुला चिट्ठा पाठक के सम्मुख खुलता चला जाता है। कूड़ी के गुलाब की समूची आत्मकथा पढ़ने को मिलती है तो बहुरंगी दुनिया की उसके प्रति व्यवहार ,सोच की परतें भी परत दर परत खुलती जाती हैं । अधिकतर रचनाएँ अभिधा में अभिव्यक्त की गई हैं । कुछ व्यंजना में भी हैं । कूड़ी पर उगकर गुलाब निराश नहीं है । उसमें अदम्य जिजीविषा है।
कवि के शब्दों में -
फेंक दो अपने आप को
अपने आप से बाहर
यदि आप सोना हैं तो बीन लिए जाओगे
कूड़ेदान से भी ।
समय का सच भी उधेड़ा है
देखिए -
अपने ही सामने
अपने ही घर से
अपनी ही नेमप्लेट उतरती देख
भरभरा कर ढह गया है
बूढ़े शेर सिंह का अस्तित्व।
अनेक रचनाओं में जीवन का गूढ़ रहस्य और दर्शन छिपा है ।
आलोचक कवि खरपतवार की तरह उगे कवि को भी नहीं छोड़ता
कवि के शब्दों में
साहित्यिक जमीन पर
उपजी खरपतवार ,
भेष बदलता बहुरूपिया ,
ध्यान में बैठा बगुला भगत ,
प्रशंसा के कूप में उछलता मेंढक ,
बार - बार मल त्यागता पेचिस रोगी ,
सबके दर्द का हमदर्द,
न औरत न मर्द,
सच कहता हूं श्रीमान!
यहीं हैं झूठे कवि के सच्चे उपमान।।
समूची व्यवस्था जिस आईने में कच्चे चिट्ठे की तरह खुलती है उसी आईने का नाम है ' कूड़ी के गुलाब '
सहज सरल भाषा- शैली में लिखी गई पुस्तक जिसमें बहुत कुछ सोचने, समझने , संवरने, सुधरने,सुधारने की जद्दोजहद है , जिद है उसका नाम है कूड़ी के गुलाब। पुस्तक रोचक पठनीय है। पुस्तक में और भी बहुत कुछ है पढ़ने समझने को , झंझोड़ने विचारने को ।
लेखक को उसकी अदम्य जिजीविषा को खूबसूरती से अभिव्यक्त करती पुस्तक के लिए बधाई, शुभकामनाएं ।"
-डॉ पुष्पलता, मुजफ्फरनगर
2.
"कूङी के गुलाब" डा.अमित धर्मसिंह का यह काव्य संग्रह है जिसे मुझे भी पढने का अवसर मिला।
एक माली गुलाब की अच्छी अच्छी डंडियों को चुनकर खाद पोषित क्यारी में जमाता है तो कुछ ही समय में वे ही डंडियां पौधा बनकर सुंदर सुंदर पुष्प खिला लेती हैं अपने ऊपर। यह तो होना ही होता है। इसी दरम्यान माली बेकार की डंडियों को कूङी अर्थात कूङे के ढेर में फेंक देता है और वही डांडिया स्वयं ही खाद पानी पा कर पुष्प खिला देती हैं तो आश्चर्य तो होता ही है। ना कोई माली उनकी देखभाल करता है और ना ही खाद पानी डालता है, पर फिर भी वे अपने ही बल बूते पर फूल खिला देती हैं। यही हाल है दलित वंचित समाज के बच्चों का। ना तो उन्हे घर में कोई मार्गदर्शन मिलता है और ना ही उनके गरीब मां-बाप उनके लिए अच्छे स्कूल, ट्यूटर की ब्यवस्था कर पाते हैं, पर फिर भी खङें हो जाते हैं सुविधाभोगी बच्चों के समकक्ष। यही संदेश दिया है डा.अमित ने अपने इस काव्य-संग्रह के माध्यम से। इस काव्य-संग्रह के शीर्षक 'कूङी के गुलाब' की सार्थकता इस कविता से स्पष्ट हो जाती है:
हम!
गमले के गुलाब की तरह नहीं,
कुकुरमुत्ते की तरह उगे।
माली के फव्वारे ने
नहीं सींची हमारी जङें।
हमारी जङों ने पत्थर का सीना चीर,
खोजा पानी कुटज की तरह।
कुम्हार के हाथों ने नहीं गढा,
वक्त के थपेड़ों ने संवारा हमें।
किसी की उंगली पकङने से ज्यादा
हम अपनी ठोकरों से संभले।
हमारी हड्डियों ने कैल्शियम
गोलियों या सीरप से नहीं,
मिट्टी खा कर प्राप्त किया।
जमीन पर नंगे पांव चलते
या तसले में 'करनी' की करङ करङ से
आज भी नहीं किटकिटाते हमारे दांत।
मिट्टी में जन्मे, मिट्टी में खेले,
मिट्टी खा कर पले बढे
इसलिए मिट्टी से गहरा रिश्ता है हमारा।
बेशक!
आसमान का इंद्रधनुष कोई हो,
जमीन पर गुदङी के लाल,
कूङी के गुलाब हम ही हैं।
सबसे बङी बात तो इस काव्य-संग्रह की भूमिका में ही है कि कैसे कैसे थपेडे झेलकर आज डा.अमित इस मुकाम पर हैं, और यही हम में से अधिकांश लोगों के साथ गुजरी है, यही कहानी असंख्य वंचितों व दलितों की है।
डा.अमित ने अपनी इस भूमिका में अपनी पारिवारिक स्थिति का भी उल्लेख किया है जो काफी दयनीय रही है पर अपने ताऊ जी व पिताजी की उस प्रगतिशील विचारों के बारे में भी बताया कि कैसे पुरानी बंधुआ मजदूरी की प्रथा से छुटकारा पा कर स्वतंत्र रूप से अपनी इच्छानुसार काम करना शुरू किया। ऐसी प्रगतिशील सोच से ही तो समाज में जागृति आती है और समाज आगे बढता है।
इस काव्य-संग्रह की हर कविता मार्मिक है, जैसे:
तुम्हारी छोटी बात इसलिए बङी है
क्योंकि तुम उसे ऐसे स्थान से कह रहे हो
जहां छींक मात्र से भी दौङ पङती है
सेवकों की लंगार।
मेरी बड़ी बात इसलिए छोटी है
क्योंकि मैं उसे ऐसे स्थान से कह रहा हूं
जहां से मेरी उत्कट चीख भी
पत्थरों से टकरा कर
लौट आती है मुझी तक।
वैसे हम दोनों जानते हैं
किसकी बात बङी है
और किसका स्थान।
काव्य-संग्रह की हर कविता का उल्लेख करना तो यहां संभव नहीं है पर उनका हर वाक्य एक संदेश दे जाता है। कविताएं अतुकांत अवश्य हैं पर कविता की अंतिम कङी गहरी चोट कर जाती है और यही एक कविता की सार्थकता होती है। इस सब में डा. गीता कृष्णांगी के योगदान की भी सराहना करनी ही चाहिए और इन दोनों नव साहित्यकारों की जोङी के लिए बहुत बहुत साधुवाद व मंगल कामनाएं।"
- बंशीधर नाहरवाल
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